6 फरवरी 2024 को सुबह कोहरे की मोटी परत के बीच अचानक रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के सामने दायीं ओर निगाह गई तो देखा कि शहर के एक नामचीन बिल्डर का चमचमाता बोर्ड गड़ा हुआ दिखा। बोर्ड को देखते हुए तुरंत आभास हो गया कि यह ऐतिहासिक ज़मीन और उसमें बना हुआ विशाल बंगला भी बिक गया। डुमना एअरपोर्ट मार्ग पर हजारों लोग यहां से गुजरते हैं। जिनमें से अधिकांश विकास के लिए भैराए हुए जबलपुर के लोग हैं। इसमें सभी पीढ़ी के लोग हैं। नई पीढ़ी के लोग तो कुछ भी नहीं जानते और पुरानी पीढ़ी के लोग इस पुराने बंगले का नाम ‘ब्लेगडान’ भूल चुके हैं। इतिहास के कुहासे की परतों में ओझल हो गया ब्लेगडान। जबलपुर के इतिहास से ‘ब्लेगडान’ बंगला का गहरा संबंध है। ब्लेगडान की कुछ विशेषताएं इसे खास बनाती थी। ब्लेगडान जबलपुर की प्रथम सेंट्रली एअरकूल्ड इमारत थी। ब्लेगडान का अर्थ होता है-From the dark valleyब्लेगडान का धुंधला इतिहास-कुछ साल पहले तक ‘ब्लेगडान’ की चारदीवारी के मुख्य द्वार के बाएं ओर सीमेंट के खंबे में ‘ब्लेगडान’ दर्ज था लेकिन समय के साथ वह ध्वस्त हो गया। तत्कालीन मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल (एमपीईबी) और ब्लेगडान इतिहास एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। तत्कालीन मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल का मुख्यालय बोर्ड रूम रामपुर स्थित पुराने शेड (वर्तमान में आफिसर्स मेस) हुआ करता था। तब मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल का कोई अधिकारिक रेस्ट हाउस नहीं था। 1968 में विद्युत मण्डल के चेयरमेन पीडी ने चटर्जी जबलपुर विश्वविद्यालय के सामने के बंगले को विद्युत मण्डल के रेस्ट हाउस के रूप में चुना। तहकीकात करने में तो भी कच्ची पक्की जानकारी मिली उसके अनुसार यह बंगला इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक बड़े वकील की संपत्ति थी। विद्युत मण्डल के कुछ पुराने इंजीनियर व कर्मचारी कहते हैं कि वह वकील नहीं बल्कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के किसी जस्टिस की मिल्कियत थी। विद्युत मण्डल ब्लेगडान को रेस्ट हाउस के रूप में वर्ष 1993 तक उपयोग में लाता रहा। मालूम हो 1989 में विद्युत मण्डल ने 1989 में अपने मुख्यालय के तौर पर शक्तिभवन का निर्माण कर लिया और बोर्ड रूम को आफिसर्स मेस के रूप में परिवर्तित कर लिया गया। एक जानकारी के अनुसार यह बंगला जेसू (जबलपुर इलेक्ट्रिक सप्लाई अंडरेटेकिंग) के रेजीडेंट इंजीनियर का अधिकारिक निवास था। मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल ने जब जेसू का अधिग्रहण किया तो इस बंगले का अधिपत्य विद्युत मण्डल को मिल गया।
अर्जुन सिंह रूम नंबर 2 में रूकना पसंद करते थे-एमपीईबी के कुछ सिविल इंजीनियरों ने जानकारी दी कि एक समय जबलपुर आने वाले अति विशिष्ट व विशिष्ट अतिथियों को रूकवाने की व्यवस्था सर्किट हाउस के स्थान पर ब्लेगडान में की जाती थी। खान अब्दुल गफ्फार खां (सीमांत गांधी) व हॉकी के जादूगर ध्यानचंद जबलपुर प्रवास के दौरान ब्लेगडान में ही रूके थे। इनके साथ ही उस समय जबलपुर आने वाली राजनैतिक हस्तियां ब्लेगडान में रूकना पसंद करती थीं। ब्लेगडान का रूम नंबर 2 मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को प्रिय था। वे यहां रूकना हर समय पसंद करते थे। प्रो. यशपाल को ब्लेगडान में विकसित किए गए पेड़-पौधों से लगाव था। मोतीलाल वोरा को ब्लेगडान की लोकेशन भाती थी।
जबलपुर के इतिहास का प्रथम मोज़ाइक फर्श-ब्लेगडान लगभग साढ़े तीन एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ था। मुख्य द्वारा से भीतर तक क्ले ब्रिक्स की सड़क थी। जबलपुर के इतिहास में सबसे पहले ब्लेगडान में मोज़ाइक फर्श बनाया गया। इसकी फ्लोरिंग इतनी वैज्ञानिक थी कि पानी गिरने पर भी एक स्थान पर एकत्रित नहीं होता था बल्कि बाहर निकल जाता था। ब्लेगडान जबलपुर की प्रथम सेंट्रली एअरकूल्ड इमारत थी। पूरे बंगले को एअरकूल्ड करने के लिए धरातल या बेसमेंट में एक बड़ा कूलर स्थापित किया गया था। वहां से पूरे बंगले में डक या नालियां निकाली गई थी। कूलर से निकलने वाला ठंडी हवा से बंगला एअरकूल्ड रहता था। बंगले में की दीवारों के बीच में केविटी का प्रावधान था। यानी कि प्रत्येक कक्ष की में दो दीवारें रखी गई थीं और उनके बीच में अंतर रखा गया। इससे कमरों को ठंडा या गर्म रखने में मदद मिलती थी। ब्लेगडान के प्रत्येक कक्ष के बाथरूम में मोज़ाइक के बॉथटब थे। ब्लेगडान में बिजली के जितने भी स्विच थे वे पीतल के थे। एमपीईबी के एक रिटायर्ड सिविल इंजीनियर सुनील पशीने जानकारी दी कि पीतल के इन स्विचों को बदलने की जरूरत नहीं पड़ी और न ही वे कभी खराब हुए। ब्लेगडान में एक ड्राइंग रूम, एक डायनिंग रूम, तीन सुईट, एक पेंट्री व एक किचन था। पूरे रेस्ट हाउस में सागौन का फर्नीचर था। ब्लेगडान के ऊपरी हिस्से में विशाल गीज़र लगा हुआ था जिससे 24 घंटे गर्म पानी की सप्लाई होती रहती थी। हॉल में एक विशाल फायर प्लेस था, जो ठंड में यहां रूकने वालों के शरीर में ऊर्जा भर देता था।
विदेशी पेड़-पौधे करते थे आकर्षित-ब्लेगडान के बाहरी परिसर में अधिकांश विदेशी प्रजाति के पेड़-पौधे लगाए गए थे। उस समय ऐसे पेड़-पौधे बहुत कम देखने को मिलते थे। बताया जाता है कि पूरे परिसर में बागवानी का उच्च स्तर था। कई बार लोग उत्सुकतावश इन पेड़-पौधे और उनमें खिलने वाले फूलों को देखने आते थे।
विद्यार्थियों का उपद्रव भी झेला ब्लेगडान ने-जबलपुर विश्वविद्यालय के ठीक सामने ब्लेगडान की मौजूदगी कालांतर में परेशानी का सबब बनी। सातवें-आठवें दशक में जबलपुर विश्वविद्यालय के छात्र उग्र हुआ करते थे। छात्रों द्वारा ब्लेगडान के फोन का उपयोग करने से जो शुरुआत हुई वह बाद में यहां जबर्दस्ती खाने-पीने, कमरों में कब्जा जमाने और कई बाद यहां की क्राकरी को ले जाने तक बात पहुंच गई। वीके ब्राम्हणकर के मेम्बर सिविल इंजीनियरिंग के दौरान नीतिगत फैसला ले कर एमपीईबी ने इस रेस्ट हाउस का अध्याय बंद कर दिया।
ब्लेगडान का बंगला जबलपुर के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय रहा। कुछ दिन बाद यहां मल्टी काम्पलेक्स व अपार्टमेंट बनेगा। भविष्य में रहने वालों को इस बात का आभास भी नहीं होगा कि जिस स्थान पर वे रह रहे हैं उसकी नींव के नीचे कितने और इतिहास दर्ज हैं।🟦
जबलपुर चौपाल
जबलपुर के बारे में सब कुछ। संस्कारधानी के व्यक्ति, समाज, परम्परा, साहित्य, कला संस्कृति, खेल का ठिकाना
बुधवार, 7 फ़रवरी 2024
🔴इतिहास के कुहासे की परतों में ओझल होता ब्लेगडान
सोमवार, 5 फ़रवरी 2024
🔴 लेखक के जाने के बाद सहानुभूति में पुरस्कार देना उचित नहीं': ज्ञानरंजन
'लेखकों को पुरस्कार तब दिए जाते हैं, जब उसकी लोकस्वीकृति हो जाती है। कई बार ऐसे लोगों को पुरस्कार नहीं मिल पाता, जिन्हें मिलना चाहिए। अक्सर ऐसा भी देखा गया है कि लेखक के दिवंगत होने के बाद सहानुभूति में उसे पुरस्कार दिया गया। ऐसा नहीं होना चाहिए।' यह बात पहल के संपादक व विख्यात कथाकार ज्ञानरंजन ने 3 फरवरी को बाँदा में पत्रकारों से बातचीत में व्यक्त की। ज्ञानरंजन को 4 फरवरी को बाँदा में प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान से सम्मानित किया गया।
बांदा का सफर करते हुए मन में कौन सी छवियां कौंधी ? ज्ञानरंजन ने कहा- बनारस, कोलकाता की तरह बाँदा मुझे पहले से आकर्षित करता रहा है। यहां कवि केदारनाथ अग्रवाल और बहुत से रचनाकारों से मुलाकात होती रही है। ज्ञानरंजन ने कहा कि वे बाँदा को जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं। पहले और आज की चुनौतियों में कितना अंतर देखते हैं ?
ज्ञानरंजन ने कहा- जब हमने कलम उठाई थी, तब अनगिनत लिखने वाले थे। मैंने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि मैं तारामंडल के नीचे एक आवारागर्द था। तब चुनौतियां बहुत थीं, जिनसे सीखने को मिला। नई तकनीक से लेखन की दुनिया में नई चुनौतियां सामने आई हैं, लेकिन तकनीक मनुष्यता के विरुद्ध नहीं है। मेरा लेखन जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लाया गया तो उसमें भी स्वागत हुआ।
नए लेखक क्या व्यक्ति और समाज के हितों में समवेत चिंतन कर रहे हैं? ज्ञानरंजन का जवाब था-कोरस में भी एक आवाज अलग होती है। वही सच्ची आवाज होती है। केदारनाथ अग्रवाल की धरती पर उगी नई फसलों से कितना मुतमइन हैं? उन्होंने कहा मैं इलाहाबाद में पढ़ता था। वहां से बाँदा से दूरी बहुत कम है। अक्सर केदार जी से मिलने यहां आता था। उनके बाद से नए लेखकों की परंपरा चल रही है। सुंदर आयोजन होते हैं। यह अन्वेषण का विषय है कि इस छोटे से कस्बे में इतने साहित्यकार कैसे हुए।
'पहल' की यात्रा को अब आप कैसे देखते हैं? ज्ञानरंजन ने कहा-आपातकाल के कुछ महीनों पहले ही पहल की शुरुआत की थी। उसका प्रकाशन बंद कराने को अनेक आक्रमण हुए, लेकिन पाठकों, लेखकों के सहयोग से पहल जारी रही। कोई अंक रोका नहीं। पहल में हर भारतीय भाषा का साहित्य छपता था। नए लेखकों को कोई संदेश ? ज्ञानरंजन ने कहा-हिन्दी में नए लेखकों का बड़ा कुनबा प्रवेश कर रहा है। अच्छे की पहचान कठिन हो गई है। पिछले दिनों अनिल यादव का यात्रा विवरण 'कीड़ाजड़ी' और चंदन पांडेय का उपान्यास 'कीर्तिगान'' प्रकाशित हुआ। यह रचनाएं शीर्ष पर हैं। यह सूची और भी आगे जा सकती है।🔷
🔴समय की कोख से ही हमारी रचनाएं जन्म लेतीं: ज्ञानरंजन
बाँदा के बुद्धिजीवियों व कलाप्रेमियों द्वारा 2007 से प्रतिवर्ष प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान हिंदी कथा में योगदान के लिए दिया जाता है। इस वर्ष का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान पहल के संपादक व विख्यात कथाकार ज्ञानरंजन को उनके आजीवन कथा व सम्पादकीय योगदान के लिए 4 फरवरी को बाँदा में प्रतीक फाउंडेशन के तत्वावधान में एक कार्यक्रम में प्रदान किया गया।
ज्ञानरंजन ने सम्मानित होने के बाद वक्तव्य दिया। जो इस प्रकार है-
प्रेमचंद स्मृति सम्मान के सदस्यों, मंच पर आसीन मित्रों और साथियों :
प्रेमचंद के बारे में कुछ तितरी बितरी, तिनका तिनका बातें शुरूआत में रखूँगा, इसलिए भी कि मेरे सम्मान के साथ इस महान कथाकार का नाम जुड़ा है।
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सबसे पहले आपका ध्यान आकर्षित करूँगा कि मुंशी जी 1936 में दिवंगत हुए और संयोग से 1936 मेरा जन्म हुआ। हमारे पूर्वज बनारस के थे और मेरे स्व. पिता श्री रामनाथ सुमन की जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद से निकटता थी। मेरे पिता ने प्रेमचंद पर यत्र तत्र लिखा है, अपने संस्मरण में। जब मैं किशोर हुआ तो पिता की लाइब्रेरी में भटकते हुए मुझे उसमें प्रेमचंद का उपन्यास रंगभूमि मिला, जिसके भीतरी पृष्ठ पर लाल सियाही से प्रेमचंद का हस्ताक्षर था। बाद में शिवरानी देवी की किताब पढ़ने को मिली।
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अभी लगभग तीन चार वर्ष पूर्व जापान से मेरे सहपाठी और अभिन्न मित्र का फ़ोन आया और उन्होंने अपने पास कवि रत्न मीर की (मेरे पिता द्वारा लिखी) एक अंतिम दुर्लभ प्रति होने की सूचना दी, जो मेरे पास नहीं थी और जिसे उन्होंने मुझे डाक से भेज दी। यह पुस्तक, पुस्तक-भण्डार लहेरिया सराय, बिहार से प्रकाशित थी, जो काफ़ी दिनों पहले बंद हो चुका है। दुर्भाग्य से हमारे इस संवाद के बाद लक्ष्मीधर का जापान में निधन हुआ। इस सजिल्द पुस्तक की भूमिका प्रेमचंद ने लिखी है और लगभग 75 वर्ष बाद कवि रत्न मीर का नया संस्करण ज्ञानपीठ ने छापा।
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सोवियत लैण्ड पुरस्कार से जुड़ी सोवियत रूस की यात्रा में मुझसे कई बार यह सवाल पूछा गया कि आप की कहानियाँ किस तरह प्रेमचंद की परम्परा से जु़ड़ी हैं। मैंने इसका विस्तार से जवाब दिया है।
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प्रेमचंद हमारे जीवन में कितने भीतर तक प्रवेश कर चुके हैं इसका एक रोचक किस्सा सुनिये। मेरी दादी सुखदेवी ने प्रेमचंद को समग्र कई कई बार पढ़ा था। उन्होंने किसी स्कूल या विद्यापीठ में पढ़ाई नहीं की थी पर प्रेमचंद की रचनाओं से वे दिलचस्प उद्धरण देती थीं। वे मेरी प्रिय थीं और हमारा परस्पर विनोदपूर्ण रिश्ता था। मैं उन्हें बूढ़ी काकी कहता था। वे भूख लगने पर तड़प उठती थीं, अपनी बहू यानी मेरी माँ पर शब्दबाण फेंकने लगती थीं। मेरे बाबा भोजपुरी बोलते थे और फारसी गणित के ज्ञाता थे। वे घर के बाहरी हिस्से में रहते थे और केवल भोजन के लिए आते थे। उनका जीवन ‘पूस की रात’ के हल्कू जैसा था। एक दिन वे ठिठुर ठिठुर के जाड़ों की रात में जलते हुए दिवंगत हो गये। वे सूखे पत्तों को इकट्ठा करके तापते थे।
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प्रेमचंद प्रसंग अभी समाप्त नहीं है। कई दिलचस्प संयोग हैं। इसलिए भी कि हम सभी प्रेमचंद की रचनाकार संतानें हैं। प्रेमचंद ने कहानियाँ लिखीं; हमने भी उनकी परम्परा में कुछ कहानियों को जोड़ा। प्रेमचंद ने प्रगतिशील संगठन की मशाल जलाई, हमने कई दशक तक प्रलेसं के पदाधिकारी के रूप में संगठन को मजबूत बनाने का काम किया। प्रेमचंद ने सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘हंस’ का अविस्मरणीय संपादन किया; हमने भी ‘पहल’ को चालीस वर्ष सम्पादित किया। जब ज्ञानपीठ ने मुझे हरिशंकर परसाई की रचनाओं का संकलन संपादन करने का दायित्व सौंपा तो मैंने उसका शीर्षक ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ दिया। उसके अनेक संस्करण हुए हैं।
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साथियों, उपरोक्त उदाहरण इसलिए ध्यान आकर्षित करने के योग्य हैं कि मैं एक लुम्पेन किशोर था। अपनी नौजवानी तक। और मैंने ‘तारामण्डल के नीचे एक आवारागर्द’ संस्मरण में इस बात को लिखा भी है। पर विचारधारा ने मुझे एक छोटे मोटे पर विश्वसनीय लेखक के रूप में स्वीकृति दी। पुरस्कार, सम्मान के मौक़े हमें यदा कदा छोटे मोटे जश्न करने की अनुमति देते हैं। मैं बांदा में अपने साथियों के इस जश्न में शामिल होकर ख़ुश हूँ। पश्चिमी भाषाओं की तरह हिन्दी में अपने लेखकों को सेलिब्रेट करने की प्रथा कुछ कम है। केवल पुरस्कारों से नहीं, हम दूसरे बहुत अन्य शानदार तरीक़ों से यह आयोजन अपने दूसरे अप्रतिम युवा लेखकों के लिए कर सकते हैं। यह मेरा सुझाव है।
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मेरी यह समझ है कि लेखक या किसी भी अन्य व्यक्ति के लिए उसका पिछला समय, उसका वर्तमान समय और उसका भावी समय बहुत अहमियत रखता है। इसमें हमारा परिवार, फिर शहर, फिर देश, फिर विश्व का समय शामिल है। समय की कोख से ही हमारी रचनाएँ जन्म लेती हैं। समय ही हमारी रचनात्मक बेचैनियों का सबब है। वह कभी हमें प्रफुल्ल करता है, कभी अधमरा। कभी वह हमारी ख़रीद फ़रोख़्त भी करता है। आज हमारा समय ख़रीद फ़रोख़्त से भरा है। इसी को हम बाज़ार भी कहते हैं। दुर्योग से मेरा प्रसव काल ख़त्म हो गया है, पर मैं समय का पीछा तो कर ही रहा हूँ। सरसरी तौर पर इसकी चर्चा करता हूँ। यह निरक्षरता का समय है। अगर रोग मानें तो इसे डिमेन्शिया और अलज़ाइमर का विस्फोटक समय भी कह सकते हैं।
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मोटी मोटी बातें देखिये। देखिये कि रोज़ जो लिखा जा रहा है, बोला जा रहा है, उसमें झूठ का प्रतिशत कितना है। असंख्य झूठ आपके देखते-देखते सच्चाइयों में तब्दील हो रहे हैं, या हो चुके हैं। सबसे ख़तरनाक दो शब्द लगते हैं - नया और विकास। ये शब्द धूर्तता से भरे हैं। निरंतर धूल झोंकी जा रही है। नया शब्दकोश, नये संग्रहालय, नया पाठ्यक्रम, नई शिक्षा, नई सड़कें, नये शहर, नया यातायात। यह सूची अनंत है। पहले ज़मीनों पर कब्ज़ा होता था अब धर्म पर कब्ज़ा है। अतीतवादी लोग ही अतीत पर प्रहार कर रहे हैं। आलोचना देशद्रोह है। कड़वी चीज़ें बर्दाश्त नहीं। लड्डू और दीये हमारे सबसे बड़े चित्र हैं। कथा कहानी के घीसू माधव विकराल रूप में पुनर्जीवित हो गये हैं। जनता सियारों के झुण्ड में बदल चुकी है। कुछ अलग आवाज़ें अगर हैं तो यू ट्यूब में घुसड़ गई हैं या फ़ेस बुक में। फिराक़ साहब का मशहूर शेर जीवित हो गया है – ‘हमीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात’। मज़ा ये है कि हम इसमें ख़ुश हैं, सफ़ल हैं। मध्यवर्ग ने वास्तविक जनता को अदृश्य बना दिया है। जबकि मोटा मोटी यह समय की एक आउटर लाइन मात्र है। उसका कैरीकेचर। यह बालकृष्ण मुख का ब्रह्माण्ड नहीं है। मित्रों, इसीलिए मैं आग्रह करता हूँ आप सबसे, जो लिखते हैं, या पढ़ते हैं, या कुछ भी नहीं करते; उन्हें अपने समय के उजले-अंधेरे झरोखों में झाँकना चाहिए। इससे परिवर्तन हो या न हो तसल्ली मिलती है और आत्मरक्षा होती है। अगर हमारा समय हमें होशियार, चौकन्ना, बनावटी और काइयाँ बना रहा है तो हमें सावधान हो जाना चाहिए।
देवीप्रसाद मिश्र की एक ताज़ा कविता का नया जुमला है : कि दो गुजराती देश को बेच रहे हैं और दो गुजराती देश को ख़रीद रहे हैं। दोस्तों यह केवल दो चार व्यक्तियों का प्रसंग नहीं है, इसके निहितार्थ गहरे और भयानक हैं। इसे व्यंग्य भी न समझें।
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दोस्तों, मैं बार-बार ‘समय’ शब्द को रिपीट कर रहा हूँ। इसलिए कि समय विशाल, विकराल और जटिल है। मैं उसे एक दो उदाहरणों से कैसै परिभाषित करूँ...? पर, मुझे समय की शिला को चूर चूर करना है। जो भी चाहे शिला-लेख बना लेता है और उसे बदल देता है। इसलिए पहले मैं उसके टुकड़े करूँगा और फिर आगे बढ़ूँगा। एक टुकड़ा उदाहरण है हमारे समय का, जिसे राष्ट्रीयकरण बनाम निजीकरण कहते हैं। यह मामूली जुमला नहीं है। इसी में सारी दुनिया उलट-पलट हो रही है। यह संगीन यात्रा समय है। आप से आग्रह है मेरी यात्रा कहानी पढ़ें। आज का दृश्य देखें - गेट मीटिंग हो रही है... काली पट्टी पहनी जा रही है... पुराने नारों को शोर है…, क्रमशः ये शस्त्र बेकार हो चुके हैं। ये पाषाण-कालीन लगते हैं। पर मूर्ख राजनीति इसकी व्यर्थता को बता नहीं पा रही है। यही समय है; दुभाग्यपूर्ण समय; सुनहरा समय नहीं। हरिशंकर परसाई की शैली में अगर मैं कहानी बनाऊँ वे वह ऐसी होगी :
आप कहते हैं कि हमारा यह सामान, हमारी यह सम्पत्ति ले लेंगे। वो कहते हैं कि नहीं लेंगे। ख़रीदने की उनकी शर्तें हैं। उनका कहना है कि पहले ढाँचे को उन्नत करो, या पुराना ढाँचा गिराओ और नया बनाओ। नई मशीनें लगाओ, बाहर से बुलाओ। श्रमिकों की छटनी करो; इनकी जनसंख्या ज़रूरत से अधिक है। ज़मीनें अधिग्रहीत करो। प्लेटफॉर्म बढ़ाओ, पटरियाँ बिछाओ, रेलगाड़ी के डब्बों को सुखद और शानदार करो, हर ओर वंदे वंदे चलाओ, ड्रेस कोड सुन्दर करो, प्लेटफॉर्म पर लिफ्ट और एक्सलेरेटर लगाओ, उसे मॉल की तरह सजाओ, जहाँ यात्री आराम से परफ्यूम, पेस्ट्री, फ़ोटोफ्रेम और मदिरा ख़रीद सकें। सामान के बोझ के लिए ट्रालियाँ लगाओ, कुलियों को हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे सभ्यता पर बदनुमा दाग़ हैं। उसके बाद हमारे संतुष्ट होने पर हस्तांतरण होगा।
एक भव्य समारोह में, एक देश प्रमुख और तमाम सी.ई.ओ. की हाज़िरी में सजे हुए मंच पर आपके घर की एक विशाल काल्पनिक चाभी उन्हें सौंपी जायेगी और आपको घर के बाहर कर दिया जायेगा। आपका काम है ताली बजाना और ठुमरी गाना। यही है साथियों, राष्ट्रीयकरण और निजीकरण का समय।
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बहुत सारे विविध उदाहरण दिये जा सकते हैं, मेरे साथियों; पर ऐसा करते जाने से समय असमय हो जायेगा।
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हमारे समय की सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि हमने अस्वीकार करना बंद कर दिया है। हमारी गोद स्वीकृतियों, उपहारों, फूल-फलों से भरी है। अभी मैं आपको कुछ उदाहरण दूँगा, लेखकों का, जिन्होंने अस्वीकृतियों के प्रतिमान बनाए।
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अमेरिका के बारे में लोर्का कहते हैं कि यह डरावना और शैतान है। यहाँ खो जाना लाज़िम है। यह देश संसार का सबसे बड़ा झूठ है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने लिखा है - साहित्यिक न्यूयार्क टेपवर्म से भरी बोतल है जिसमें वे एक-दूसरे को खाते रहते हैं। मार्क ट्वेन लिखते हैं कि बोस्टन में पूछा जाता है - आप कितने ज्ञानवान हैं? न्यूयार्क में पूछा जाता है कि - आपकी कूबत, क़ीमत क्या है?
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एक अमरीकी लेखक लिखता है कि 6 करोड़ लोगों का यह शहर न्यूयार्क कौतूहल और संदिग्धता से भरा हुआ; यहाँ कोई लैण्डस्केप नहीं; सभी लैण्डमार्क हैं। इस शहर में कोई बूढ़ा नहीं होता। बूढ़े भी जवान हैं। यहाँ विपन्न को अतीत के डस्टबिन में डाल दिया जाता है।
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एनरैण्ड के फाउंटेन हेड में मैंने जो पढ़ा था, आपको यथावत् कोट कर रहा हूँ : -
‘‘न्यूयार्क के डिटेल्स एकत्र करना असंभव है। वे इतने गडमड हैं कि उन्हें एकबारगी स्वतंत्र नहीं देखा जा सकता। न्यूयार्क की विवरणिका नहीं बनाई जा सकती। यह दुनिया भगवान से टकरा रही है। न्यूयार्क के आसमान पर मनुष्य निर्मित इच्छाएँ हैं। हमें और किस धर्म की ज़रूरत है।’’
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मैंने लगभग एक दर्जन बड़े लेखकों के वाक्यों को एकत्र किया है जो शहरों के बारे में हैं। प्रसिद्ध शिल्पी जिसने चंडीगढ़ की परिकल्पना की थी, ने कहा कि स्काई क्रीपर्स धनोपार्जन की मशीनें हैं।
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क्या हमारे यहाँ रचनाकारों, शिल्पियों और वास्तुकारों ने छोटे-बड़े, नये-पुराने किसी ने भी शहरों के बारे में - यानी विकास के ऐसे छायाचित्र और नक्शों के बारे में टिप्पणी की है? हमने घीसू-माधव द्वारा भेजी गई स्मार्ट योजनाओं का जम कर स्वागत किया और ठुमरी गाई। अब सब बदरंग हो चुका है और भ्रष्टाचार का सबब है। इसने वास्तविक जनता को देश से दूर ठेल दिया है। शहरीकरण की आंधी में कश्मीर से कन्याकुमारी तक प्राकृतिक सौन्दर्य के असंख्य चित्र लुप्त हो गये हैं। यह पहले से हो रहा था; मद्धम...मद्धम...! पर अब यह बुलेट की तेज़ी से हो रहा है।
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हमारी राजधानी दिल्ली जो दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नगरी है, राजसत्ता की मनमानी रोशनियों से धधक रही है। मुझे याद आता है मिर्ज़ा ग़ालिब और रामधारीसिंह दिनकर की कविता ने ही दिल्ली पर सवाल उठाए; पर यह सूची बहुत संक्षिप्त है। ग़ालिब के अशआर अभी भी धूमिल नहीं हुए और दिनकर की लम्बी कविता दिल्ली को लोग भूल गये। ये सब मैं आपको इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि ये हमारे समय के सवाल हैं। और शुरू में मैंने कहा था कि एक लेखक को अपने समय की पड़ताल करनी चाहिए। अपने गुज़श्ता, वर्तमान और भावी समय की पहचान करनी चाहिए। यह हमारे लेखन का एक अनिवार्य हिस्सा है। क्या हम चौकन्नापन, काइयाँपन और कृत्रिमताओं को देख रहे हैं। शास्ता के मुक़ाबिले शासित जनता ज़ादा अपराधी है।
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पुरस्कृत व्यक्ति थोड़ा वाचाल हो जाता है; इसलिए मैंने कुछ अधिक कहा। मैं इतना बड़ा लेखक नहीं हूँ कि पुरस्कार को आलू का बोरा कह कर इतिश्री कर सकूँ।
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बहरहाल, जो व्यक्ति जिन शीर्षकों के अन्तर्गत पुरस्कृत हुआ है उसे आलोचक या अध्यापक की तरह नहीं बोलना चाहिए। उसका क्षेत्रफल ही अलग है। वह अपनी कहानियों से उत्पन्न दुनिया, जिसमें आप सब शामिल हैं, नये अन्वेषण करेगा। वह अपनी कहानियों में बार-बार लौट सकता है। क्योंकि कहानियाँ मरती या समाप्त नहीं हो जातीं। वे नये गलियारे बना सकती हैं। मुझे आपको एक उदाहरण देना है। इलाहाबाद कॉफ़ी हाउस में उन दिनों हमारा अड्डा था। अलग टेबुल पर बैठने वाले आलोचक विजयदेव नारायण साही याद आते हैं। संयोग से यह उनका जन्मशती वर्ष भी है। साही जी जबलपुर परसाई जी से मिलने आये थे। बारिश हो रही थी। हम एक रिक्शे पर बैठ कर बतिया रहे थे। कॉफ़ी हाउस में हम दोनों ने कभी एक टेबुल शेयर नहीं किया, पर यहाँ हम एक रिक्शे पर थे। साही जी ने कहा - ज्ञान तुम्हारी कहानी ‘बहिर्गमन’ अभी बची है, ख़त्म नहीं हुई है। मेरा सुझाव है कि जहाँ ‘बहिर्गमन’ समाप्त होती है, उसके आगे उसका दूसरा भाग लिखो। ‘मनोहर’ का परदेस में क्या हुआ, वह लौटा या मर गया। कुल मिला कर उसके बकाया जीवन का क्या हुआ। दूसरा भाग इस अंधकार को फाड़ने वाली कहानी हो सकती है। ‘बहिगर्मन’ का दूसरा हिस्सा मैंने लिखने की कोशिश की, पर बात बनी नहीं। मेरे पास मृत संजीवनी सुरा नहीं थी या हनुमान जी वाली बूटी, जो कहानी को फिर से जीवित कर पाती। मैं काहिल भी हूँ, संभवतः आलस्य इस काम में बाधा बना हो। जो भी हो अब मैं आपके सामने हूँ।
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लम्बे वक्तव्य से बचते हुए अंत में, दोस्तों, मेरा मानना है कि आपने मुझे पुरस्कृत किया, इससे साबित होता है कि आपको पुरानी दुनिया नापसंद नहीं है। संभव है कि आप यह भी मानते हों कि विकास की वर्तमान अवधारणा एक छद्म अवधारणा है। वाल्टर बैंजामिन भी अपनी समीक्षा में लगभग यही निष्कर्ष निकालते हैं। हमने पश्चिम की नक़ल करते हुए उसका आवरण सनातन बनाने का प्रयास किया है। अगर पुरानी दुनिया से हमें आगामी दुनिया में आना ही है तो हमारे स्वप्न, हमारे आग्रह, हमारी कामनाएँ भिन्न होंगी। पुराने से हमारा तात्पर्य यह नहीं है कि हम लालटेन की वापसी चाहते हैं। - ज्ञानरंजन 🔷
शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024
🔴अभी थके नहीं हैं ज्ञानरंजन
(वर्ष 2024 का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान पहल के संपादक व विख्यात कथाकार ज्ञानरंजन को उनके आजीवन कथा व सम्पादकीय योगदान के लिए देने का निर्णय लिया गया है। 4 फरवरी को बाँदा में प्रतीक फाउंडेशन के तत्वावधान में एक कार्यक्रम में ज्ञानरंजन को 31000 रूपए की सम्मान निधि व स्मृति चिह्न भेंट कर सम्मानित किया जाएगा।)
88 साल के ज्ञानरंजन कभी थकते नहीं। उनके लेखन व कर्म में एक युवापन की जो छवि है वह लोगों को आकर्षित करती है। युवा तो उनके मुरीद हैं। इसमें सभी वर्ग के लोग हैं। चाहे वह लेखक हो या चाहे संस्कृतिकर्मी या आम विद्यार्थी जो भी उनसे पहली बार मिलता है, उसके बाद बार-बार उनसे मिलना चाहता है। युवा रचनाशीलता की पूरी ज़मात उनके सम्मोहन में बंधी हुई है। ज्ञानरंजन समकालीन परिदृश्य में सबसे सक्रिय व्यक्तित्व हैं। इसके पीछे निष्ठा भरी अटूट सक्रियता का लम्बा अतीत है। लगभग 60 वर्ष से अपनी रचनात्मकता से समकालीन परिदृश्य में ज्ञानरंजन की छवि नायक की है।ज्ञानरंजन की कीर्ति का मूल आधार उनकी कहानियां हैं। उनकी कहानियों ने हिन्दी कहानी की दिशा ही बदल दी। ज्ञानरंजन ने असाधारण रचनात्मकता से कहानी को नई कहानी से मुक्त करने का ऐतिहासिक कार्य किया है। उन्होंने एक बिल्कुल नई कथा भूमि रची है। पचास वर्षों के अंतराल के बावजूद उनकी कहानियों में विलक्षण ताजगी व सम्मोहन उपस्थित है। ज्ञानरंजन की यह निजी विशेषता है कि वे शिखर पर पहुंच कर अपनी रचनात्मक भूमिका में गुणात्मक परिवर्तन कर लेते हैं। कहानियों में अपना अनूठा प्रतिमान स्थापित करने के बाद ज्ञानरंजन ने स्वयं को कहानी लेखन से दूर कर लिया।
ज्ञानरंजन की भाषा ही है ऐसी है जो सब को आकर्षित करती है। उनका गद्य विलक्षण है। उनका शब्दों का चयन व वाक्यों की गति से लोग ईर्ष्या करते हैं। ज्ञानरंजन की भाषा सिर्फ कहानी तक सीमित नहीं है बल्कि गद्येत्तर लेखन में उनकी भाषा जादूई है। उनके छोटे से छोटे वक्तव्य और व्यक्तिगत रूप से लिखे गए पत्र अपनी भाषा का जादू बिखेर देते हैं।
ज्ञानरंजन की दूसरी पारी पहल के प्रकाशन से 1973 में शुरु हुई। ज्ञानरंजन ने पहल का प्रकाशन प्रगतिशील परम्परा को वैचारिक व रचनात्मक दोनों स्तरों पर प्रभावशाली बनाने के लिए किया। पहल का आदर्श वाक्य ही था-इस महादेश की चेतना के वैज्ञानिक विकास के लक्ष्य और संकल्प के लिए प्रतिबद्ध। पहल एशिया महाद्वीप में वैज्ञानिक विचारों के विकास संकल्प को पूर्ण करने वाली एक अनिवार्य पत्रिका बनी। पहल का 125 अंक तक प्रकाशन हुआ तब तक इसकी प्रगतिशील मूल्यों के प्रति दृढ़ आस्था रही। बिना किसी संस्थान और संसाधन के पहल ने अपनी यात्रा तमाम प्रतिकूलता व अभाव के बावजूद सक्रियता से बनाए रखी। पहल एक सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में स्वीकार की गई। ज्ञानरंजन ने हमेशा सामाजिक सरोकारों से ही विकसित साहित्य और सांस्कृतिक मूल्यों की हिमायत की।
पहल की सबसे बड़ी विशेषता इसमें छपने वाली सामग्री की समकालीनता रही। पहल के प्रत्येक अंक में साहित्य व विचार की इतनी खुराक रहती थी कि पढ़ने वाले को तीन चार माह तो लग ही जाते थे। तब तक वह अंक पूरा होता नया आ जाता था। कहानी व कविता को ले कर पहल के चयन अप्रतिम है। बीच बीच में पहल द्वारा पुस्तिकाओं का प्रकाशन अद्भुत रहा। पहल सम्मान का जिक्र करना भी ज़रूरी हो जाता है। पहल सम्मान दरअसल पहल परिवार की आत्मीय सामूहिकता का ऐसा उदाहरण है जिसकी मिसाल हिन्दी में दूसरी नहीं।🔷
गुरुवार, 11 जनवरी 2024
श्रद्धांजलि: मलय एक महत्वपूर्ण कवि जिनकी हमेशा उपेक्षा की गई
मलय की शुरुआती कविताएँ लयबद्ध व छन्दबद्ध थीं और बाद में वे मुक्त कविता की ओर बढ़े और फिर रूके नहीं। मुक्तिबोध ने मलय की कविताओं पर लम्बा पत्र लिखा था जो मुक्तिबोध रचनावली में प्रकाशित है। इस पत्र को संपादकों ने पहले गलत पाठ के साथ छाप दिया था लेकिन अब रचनावली के नए संस्करण में सही पाठ के साथ प्रकाशित हुआ। गलत पाठ ने मलय का तब तक बहुत नुकसान कर दिया था।
मलय हिन्दी के एक ऐसे विरल और महत्वपूर्ण कवि हैं, जिनकी लगातार उपेक्षा की गई और हिंदी आलोचना ने उनके साथ भी कभी समुचित न्याय नहीं किया। वे इन सबसे मुक्त होकर लगातार कविता लिखते रहे। इस कारण से उनकी कविताओं में नैसर्गिक प्रभाव कायम रहा है। मलय ने हर बार नवीनता और अनुभव की उच्चतर सघनता के साथ नई कविताएँ लिखीं।
यह सच है कि हिन्दी के नामवर आलोचकों ने मलय को कभी तवज्जो नहीं दी। आलोचकों ने उन्हें नकारा, पर हिन्दी के कवियों ने उन्हें स्वीकारा और खूब मान दिया। मलय को हिन्दी के कवियों का खूब प्यार व सम्मान मिला। मलय पर वरिष्ठ के साथ युवा कवियों ने लिखा और इसे महत्वपूर्ण माना गया। इन सारे आलेखों को कवि ओम भारती ने संपादक के रूप में एक पुस्तक के रूप में निकाल कर बड़ा व महत्वपूर्ण काम किया। इस पुस्तक का शीर्षक है- ‘जीता हूँ सूरज की तरह’।
कवि नरेंद्र जैन ने ‘जबलपुर में मलय’ शीर्षक कविता में गहरा व्यंग्य किया है-
“आलोचक दिल्ली में विराजे हैं
जबलपुर में मलय कविता लिख रहे हैं
आलोचक द्वारा न पढ़े जाने से
क्या बना-बिगड़ा कविता का?
जबकि आलोचक
अपने औज़ार तेज करने से
हाथ धो बैठे
यहाँ
भयावह मोर्चा लग चुका है आलोचना को
वहाँ
जबलपुर में मलय
कविता में डूबे हैं.”
मलय की कविता की बात की जाए तो वह उसमें नई भाषा है। मलय का शिल्प सीधा नहीं था. थोड़ा आड़ा-तिरछा था। पर वह सब उनका सचेत चयन था। उन्होंने कठिन और लंबी राह ही चुनी थी। मलय की कविता में अनगढ़ता का सौंदर्य है। सरलता और सादगी का सौंदर्य है। इसमें काट-छाँट, तराश, करीनापन नहीं है, बल्कि ठेठ हिंदुस्तानी का जीवन सौन्दर्य बोध यहाँ झलक मारता है। मलय की काव्य-संवेदनाओं में कहीं कोई दरार नहीं मिलेगी, जो उनकी सरल-सिधाई और ईमानदारी का प्रमाण भी है। मलय की काव्य यात्रा कभी पूरी न होने वाली एक कविता की ही अनवरत यात्रा है। यह यात्रा अँधेरे से उजाले की ओर अनवरत अग्रसर होने की यात्रा रही है। उनकी यात्रा अँधेरे से लड़कर, अँधेरे को चीरकर, प्रकाश की ओर आने की एक जिद्दी यात्रा है। यह मलय की जिजीविषा के कारण ही संभव हो पाई है।
मलय के प्रकाशित 13 काव्य संग्रह हैं। उनका आलोचनात्मक कार्य व्यंग्य का सौंदर्य शास्त्र काफ़ी सराहा व महत्वपूर्ण माना गया है। जीता हूँ सूरज की तरह (मलय पर केन्द्रित मूल्यांकन परक आलेखों, साक्षात्कारों एवं कुछ अन्य सामग्रियों का संकलन) पिछले दिनों प्रकाशित हुआ था। मलय को सप्तऋषि सम्मान, मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के अखिल भारतीय भवानी प्रसाद मिश्र कृति पुरस्कार, मध्यप्रदेश साहित्य सम्मेलन का भवभूति अलंकरण, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल शोध संस्थान, वाराणसी का चन्द्रावती शुक्ल पुरस्कार व हरिशंकर परसाई सम्मान से सम्मानित किया गया था।
मंगलवार, 2 जनवरी 2024
🔴जबलपुर की 93 साल पुरानी भट्टी में बने रम केक के क्यों हैं दीवाने लोग
इस समय क्रिसमस और नया साल का मनाने के लिए रोज पार्टियां हो रही है और नए प्लान बनाए जा रहे हैं।
केक और वह भी रम (वाइन) केक की बात हो..और जबलपुर का ज़िक्र ना हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। केक जबलपुर की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन गया है।क्रिसमस और न्यू ईयर सेलिब्रेशन के लिए जबलपुर के रम केक की मांग इतनी है कि एक महीने पहले से ऑर्डर लिए जाने लगते हैं। ब्रिटिश काल शुरू हुए इस केक की मांग अब प्रदेश से बाहर देश-विदेश तक से आ रही है। आयताकार आकार में तैयार होने वाला यह केक आज भी 93 साल पहले बनी भट्टी में सिंकता है। इसकी खास बात यह है कि यह तीन महीने तक खराब नहीं होता। केक लंबे समय खाया जा सके इसलिए इसमें क्रीम नहीं मिलाई जाती और न ही किसी केमिकल का उपयोग किया जाता है।
गोवा के रहने वाले होरी विक्टर और उनकी पत्नी कैरोलीना जबलपुर में रम केक बनाया करते थे। इनके बनाए केक के ब्रिटिश अफसर दीवाने थे। गोवा से जब ये ब्रिटिश अफसर जबलपुर आए, तो उन्हें अपने जीवन में रम केक की कमी खलने लगी। ब्रिटिश अफसरों ने होरी विक्टर को जबलपुर बुलवा लिया। 1930 में विक्टर पत्नी कैरोलिना के साथ जबलपुर आ गए। यहां उन्होंने सिविल लाइन में डिलाइट टॉकीज के पास एक छोटी सी बेकरी में वाइन केक बनाना शुरु कर दी। अंग्रेजों के साथ भारतीयों ने धीरे-धीरे वाइन केक खाना शुरु कर दी।
1947 में देश की आजादी के साथ ही विक्टर ने जबलपुर में बेकरी का व्यवसाय शुरू किया। बेकरी में केक बना कर वे बाज़ार में बेचने लगे। उस समय एक पाउंड केक की कीमत दो रूपए रखी गई। 76 साल में आधा किलो केक की कीमत अब 350 रूपए हो गई।
रम केक की शुरुआत करने वाले होरी विक्टर का 1995 में देहांत हो गया। उसके बाद उनके परिवार ने बेकरी की जिम्मेदारी संभाल ली। होरी विक्टर की एक पहचान यह भी थी कि वे फुटबाल के उत्कृष्ट खिलाड़ी थे। जबलपुर के मद्रास इलेवन से उन्होंने लंबे समय तक फुटबाल खेली। बाद में होरी विक्टर मद्रास इलेवन के कर्ताधर्ता रहे। वे फुटबाल के नेशनल रेफरी भी थे।
होरी विक्टर के पुत्र रिलेश डेविड विक्टर बेकरी संभालते हैं। क्रिसमस और फिर नए साल 1 जनवरी को दो दिन रम केक की खूब मांग रहती है। महीने भर पहले ही हजारों ऑर्डर आ जाते हैं। इसे पूरा करने के लिए विक्टर परिवार 20-20 घंटे तक पारम्परिक भट्टी में जुटा रहता है। केक में अच्छी क्वालिटी की रम मिलाई जाती है। रम केक बनाने की तैयारी एक दिन पहले से की जाती है। एक निश्चित मात्रा में रम मिलाने के बाद फ्रूट्स को अच्छे से फेंटा जाता है। इसके बाद बटर, अंडा, गरम-मसाला, मैदा और अन्य सामान मिलाया जाता है। तैयार केक के मिश्रण को गरम भट्टी में करीब एक से तीन घंटे तक के लिए सेंका जाता है। इस दौरान केक बेक करने वाले की निगाह पूरे समय भट्टी पर इसलिए जमी रहती है कि कहीं केक कच्ची न रह जाए या ज्यादा न सिक जाए।
केक बनाते वक्त उतनी ही रम का उपयोग किया जाता है, जिसमें कि बस थोड़ा सा स्वाद आए। बेकरी की भट्टी में एक बार में 90 किलो केक तैयार किया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी को भी यह वाइन केक बहुत पसंद था।
केक के शौकीन स्वाद अनुसार भी अपनी केक बनवा सकते हैं। यहां सिर्फ रम केक ही नहीं बनता बल्कि होरी विक्टर की बेकरी में सभी का ध्यान रखा जाता है। बेकरी में वलनट, पाइनेप्पल, प्लेन केक भी बनते हैं। यदि आप चाहते हैं तो पूरा समान दे कर अपनी आंखों के सामने केक बनवा सकते हैं। आप के सामने भट्टी में केक बना कर पेश कर दिया जाएगा।🔷 (फोटो: होरी व कैरोलिन विक्टर, 93 साल पुरानी भट्टी के साथ रिलेश डेविड विक्टर और वाइन केक)
शुक्रवार, 15 दिसंबर 2023
🔴 वक्त बदलता है और किसी के लिए रुकता नहीं की तर्ज़ पर घंटा घर के 104 साल
कहते हैं 'वक्त बदलता है और
किसी के लिए रुकता नहीं है'। आज घंटाघरों के अलावा कलाई पर
डिजिटल घड़ी एक फैशन या जीवनशैली का सहायक उपकरण बन गई है। अब जब हर किसी के पास मोबाइल
फोन, लैपटॉप और हर इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस पर घड़ी उपलब्ध है,
तो कौन घड़ी खरीदने पर पैसा खर्च करना चाहता है? लेकिन सालों पहले बनाए गए घंटा घरों का अपना महत्व है। स्वतंत्रता
आंदोलनों के दौरान घंटा घर सार्वजनिक बैठकों का स्थान रहता था। नेताजी सुभाष चंद्र
बोस ने 1930 में घंटा घर में स्वतंत्रता सेनानियों की बैठकें लिया करते थे। उन
दिनों स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा बनाए और गाए गए गीतों में 'घंटाघर' शब्द बहुत लोकप्रिय हुआ। ज़रा इस गीत पर गौर
कर लें-
घंटा
घर की चार घड़ी
चारों
में ज़ंजीर पड़ी
जब
भी घंटा बजता था
खड़ा
मुसाफ़िर हंसता था
हंसता
था वो बेधड़क
आगे
देखो नई सड़क
नई
सड़क पर बोआ बाजरा
आगे
देखो शहर शाहदरा
शहर
शाहदरा में लग गई आग
आगे
देखो गाजियाबाद
गाजियाबाद
में फूटा अंडा,
उस
में से निकला तिरंगा झंडा
झंडे
से आई आवाज़
इंकलाब
ज़िंदाबाद।
जब बात घंटा घर की आई है तो जबलपुर के घंटा घर
(क्लॉक टावर) की याद आना लाजिमी है। ओमती क्षेत्र स्थित घंटा घर जबलपुर की सबसे
पुरानी इमारतों में से एक है। 104 वर्ष पुरानी इस इमारत की सड़क से जबलपुर के
हजारों-लाखों लोग ओमती से निकलते वक्त एक बार निहार लेते हैं। स्टेशन से हाई कोर्ट
के रास्ते शहर में प्रविष्ट होने वाले परदेसी घंटा घर को दूर से ही देख कर
उत्तेजित होते हैं। लोगों का कहना है कि चार मंज़िला घंटा घर में जब तक कृत्रिम
रंग रोगन नहीं हुआ था,
तब तक उसकी वास्तविकता व सुंदरता ज्यादा आकर्षित करती थी। महसूस
होता है कि जबलपुरियों का इसके इतिहास से ज्यादा सरोकार नहीं लेकिन परदेसी घंटा घर
के बारे ज्यादा जानने के सदैव इच्छुक रहते हैं। यह भी सत्य है कि जबलपुर को काफ़ी
वर्षों से छोड़े लोगों की याद में घंटा घर आज भी जीवित है। भारत का सबसे पुराना और
मध्यप्रदेश का पहला चॉयनीज रेस्त्रां घंटा घर के नज़दीक होने के कारण ‘क्लॉक टॉवर चॉयनीज रेस्त्रां के नाम से मशहूर है। जबलपुर के
पत्रकार-संपादक रम्मू श्रीवास्तव ने तो अपने साप्ताहिक कॉलम का नाम ‘घंटा घर से’ रखा था।
विक्ट्री मेमोरियल टॉवर-घंटा घर में लगे शिलापट्ट पर अंकित शिलालेखों के
अनुसार,
'विक्ट्री मेमोरियल टॉवर' की आधारशिला
15 दिसंबर 1918 को जबलपुर के चीफ कमिश्नर बेंजामिन
रॉबर्ट्स द्वारा रखी गई थी। घंटा घर वर्ष 1919 में बनकर
तैयार हुआ था। इसे ब्रितानिया सरकार की प्रथम विश्व युद्ध में विजय स्मृति के तौर
पर बनाया गया था। उस समय हाथ घड़ी बांधने वालों की संख्या कम थी। घंटा घर में
प्रत्येक घंटा बीतने के साथ चारों दिशा में घंटा भी गूजता था। चार मंज़िला घंटा
घर की तीसरी मंज़िल में चारों दिशाओं की ओर विशाल डॉयल वाली घड़ी लगी है। इसके भूतल पर चार मेहराबदार द्वार हैं। छह
खंबों के आधार पर पूरी इमारत खड़ी है। घंटा घर पर कुछ शिलालेख पढ़ने में नहीं आते
हैं। लगभग सौ साल बाद वर्ष 2019-20 में घंटा घर की मरम्मत कर इसको चमकाने की कोशिश
की गई। आठ-दस साल पहले इसकी घड़ियां खराब हुई तो उनको
परिवर्तित कर नई घड़ी लगाई गई। बताया जाता है कि पुरानी घड़ियां नगर निगम में कुछ
दिन तक तो रखी रहीं और फिर यह ऐसी गायब हुईं कि आज तक नहीं मिली।
भारत में कौन सा घंटा घर सबसे पहले
बना-पहला सिटी क्लॉक टॉवर 1870 के दशक में शाहजहानाबाद (दिल्ली) के मध्य में बनाया गया था, इससे बहुत पहले अंग्रेजों ने भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली
स्थानांतरित करने के बारे में सोचा था। अपने दिल में वे जानते थे कि भारत की असली
राजधानी दिल्ली की मुगल राजधानी थी। अपनी प्रतिष्ठित उपस्थिति और डिजाइन के साथ,
दिल्ली में क्लॉक टॉवर विश्व प्रसिद्ध मुगल शहर के केंद्र में लगभग 80
वर्षों तक खड़ा रहा, जिसे अंग्रेजों ने अंतिम
मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर से छीन लिया था। यह भारत में निर्मित पहले क्लॉक टावरों
में से एक था। इस दृष्टि से देखें तो जबलपुर में पचास साल के बाद घंटा घर का
निर्माण हुआ।
घड़ियाली टाइमकीपर-सभ्यता की दृष्टि से, भारतीयों ने धार्मिक या व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए क्लॉक टावरों का
निर्माण बिल्कुल नहीं किया। हिन्दी शब्द घड़ी, घड़ी या घूरी
जिसे हम घड़ी या घड़ी कहते हैं, वास्तव में समय की एक माप या
इकाई है। प्राचीन भारतीय समय निर्धारण प्रणाली के अनुसार एक घड़ी 24 मिनट की होती थी। इस हिसाब से एक दिन और रात में 60 घरियां
होती हैं। मुगल सम्राट जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर (1483-1530) के
बाबरनामा के अनुसार-"यहां के शहरवासी घड़ियाली नामक एक
टाइमकीपर को नियुक्त करते हैं, जो एक ऊंचे स्थान पर लटकी हुई
बड़ी पीतल की प्लेट की घंटी बजाता है। दिन के प्रत्येक पहर को चिह्नित करने के लिए
शहर का केंद्र। एक दिन और रात में चार-चार पहर होते हैं। घड़ियाली घारी को मापने
और उसकी घोषणा करने के लिए पानी की घड़ी, क्लेप्सीड्रा का
उपयोग करते थे।''
घंटाघरों निर्माण का क्या था
उद्देश्य-पहले के
समय में भी क्लॉक टॉवर खूबसूरती से निर्मित मीनारों से ज्यादा कुछ नहीं थे, जो निश्चित अंतराल पर बांग देने वाले यांत्रिक मुर्गों के रूप में अधिक
काम करते थे ताकि लोग एक व्यवस्थित या नियमित तरीके से अपना जीवन जी सकें। चर्च ने
विश्वासियों को प्रार्थनाओं में भाग लेने के लिए याद दिलाने और लाने के लिए बेल
टावर्स और बाद में क्लॉक टावर्स का उपयोग किया। इस्लाम ने ऊंची मीनारों का उपयोग
किया जबकि हिंदुओं ने इसी उद्देश्य के लिए शंख या धातु की घंटियों का उपयोग किया।
जबलपुर के घंटा घर का ऐतिहासिक महत्व कई तरह से है। हम लोग थोड़े सजग और सतर्क हो कर 100 साल पुरानी इस इमारत को हर तरीके से बचाएं। क्या आप ने एफिल टॉवर में झंडे-पोस्टर बंधे देखे? मैंने तो नहीं देखा। फिर घंटा घर में ऐसा क्यों होता है।🔷
🔴इतिहास के कुहासे की परतों में ओझल होता ब्लेगडान
6 फरवरी 2024 को सुबह कोहरे की मोटी परत के बीच अचानक रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के सामने दायीं ओर निगाह गई तो देखा कि शहर के एक नामच...
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( As Late B. L. Parashar, IPS told Pankaj Swamy) Compiled by Pankaj Swamy The Nerbudda Club of Jabalpur is one of the most ancient clubs ...